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चिपको आन्दोलन श्रीपर्णा ताम्हणे अँग्रेजी से अनुवाद : रमणीक मोहन
सम्पादन : राजेश उत्साही
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क्या था यह आन्दोलन ? 1970 के दशक में देश भर में लोग पेड़ों के काटे जाने के विरुद्ध आवाज उठा रहे थे। तब उत्तराखण्ड के ग्रामवासी पेड़ों को ठेकेदारों से बचाने के लिए उन्हें अपने आलिंगन में ले लेते थे और उन्हें काटने से रोकते थे – यानी वे पेड़ों से ‘चिपक’ जाते थे। यहीं से इस आन्दोलन का नाम ‘चिपको आन्दोलन’ पड़ा ।
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इस प्रकार का सबसे पहला कदम अप्रैल 1973 में अलकनन्दा की ऊपरी घाटी में स्थित मण्डल नामक गाँव में उठाया गया । अगले पाँच साल में यह आन्दोलन उत्तराखण्ड ( तब के उत्तर प्रदेश ) के हिमालय क्षेत्र के कई जिलों में फैल गया।
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सरकार ने जंगल का एक बड़ा हिस्सा खेलों का सामान बनाने वाली एक कम्पनी को देने का निर्णय लिया तो ग्रामवासियों में क्रोध की ज्वाला भड़क उठी। और आन्दोलन जंगल की आग की तरह फैल गया।
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इलाके की महिलाएँ जंगल में गईं और उन्होंने पेड़ों के इर्द- गिर्द एक घेरा बना लिया और इस प्रकार ठेकेदारों को पेड़ काटने से रोकना शुरू कर दिया।
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उसके बाद देश भर के कई गाँवों में महिलाओं ने पेड़ों को काटे जाने से रोकने के लिए यह तरीका अपनाया है।
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उन्होंने नारा दिया – “ जन्म किसे देते हैं जंगल ? मिट्टी, जल और शुद्ध हवा को।”
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पहाड़ों में चिपको आन्दोलन की सफलता ने हजारों पेड़ों को काट गिराए जाने से बचाया है।
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